भारतीय नौसेना की पनडुब्बी शक्ति: एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य

-By Ravi Srivastava (30 July 2023)

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मूक शिकारी

आधुनिक युद्ध में सामरिक क्षेत्र पर प्रभुत्व, नौसेना शक्ति पर अत्यधिक निर्भर करता है। मजबूत नौसैनिक क्षमता वाला देश हमेशा अपने सीमा से दूर शक्ति प्रक्षेपण में सफल रहा है, इससे  इसके प्रभाव के क्षेत्र में भी काफी वृद्धि होती है। हाल के दिनों में लगभग सभी युद्धों में समुद्री प्रभुत्व के महत्व को देखा गया है, चाहे प्रबल विवाद        भू-सीमाओं को पुनः रेखांकित करने का ही क्यों न रहा हो। समुद्री प्रभुत्व के वास्तविक लाभ द्वित्य विश्व युद्ध के दौरान महसूस किए गए थे, जब एक्सिस और एलाइड दोनों शक्तियों ने एक-दूसरे को तबाह  करने की भरपूर  कोशिश की थी। फ्रांस में नॉर्मंडी लैंडिंग, जर्मनी के पतन का कारन बना जिसने द्वित्य विश्व युद्ध के घटनाक्रम को बदल कर रख दिया था।

नौसेना के लिए युद्ध में इतने प्रभाव के कई तथ्यात्मक कारण हैं। यह एकमात्र बल है जिसमें उप-सतह, सतह और वायु घटक हैं जो किसी भी युद्ध में एक बेजोड़ क्षमता प्रदर्शित करते हैं। निर्विवादित रूप से तीनों में से उप-सतह पर – पनडुब्बीयां सबसे घातक हिस्सा हैं। वे न केवल नौसेना के लिए अद्वित्य हैं, बल्कि युद्ध एवं शांतिकाल में अत्यंत प्रभावी साबित हुई हैं। प्रसिद्ध जर्मन यू-बोट्स ने द्वित्य विश्व युद्ध में एक्सिस शक्तियों पर कहर बरपाया था। यू-बोट्स को 100 से अधिक जहाजों को नष्ट करने का श्रेय जाता है, उसने अटलांटिक, भूमध्य सागर और कैरिबियन में समुद्री मार्गों को अवरुद्ध करने में शानदार सफलता दर्ज की थी ।

आज प्रमुख शक्तियां न केवल पनडुब्बीयों के बड़े बेड़े का संचालन कर रही हैं, बल्कि उन्हें स्टील्थ तकनीक, बेहतर सोनार, परमाणु संचालित और घातक हथियारों से भी लैस कर रही हैं । यह उल्लेखनीय है कि अब पनडुब्बीयां बड़ी शक्तियों द्वारा परमाणु मिसाइलों को रखने एवं ऑपरेट करने के लिए पसंदीदा मंच बन गई हैं। उनके पास छुपाव और पहुंच की जबरदस्त क्षमता है जो राष्ट्रों के लिए परमाणु त्रिकोण के सबसे विश्वसनीय घटक का पर्याय बन गया है।

उभरती चुनौतियां

सफल नौसैनिक अभियानों को बनाए रखने के लिए प्रौद्योगिकी और बजटीय संसाधन की दोहरी आव्यशकता  किसी भी राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण चुनौती है। भारतीय नौसेना ने 80 के दशक के उत्तरार्ध में पनडुब्बीयों के संचालन को शुरू किया था । हालांकि, 7500 किलोमीटर से भी ज्यादा दूरी तक फैले विशाल तटरेखा की  सुरक्षा को बनाए रखने की जिम्मेदारी ने भारतीय नौसेना को पनडुब्बीयों सहित अपनी संपत्ति का तेजी से विस्तार करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं छोड़ा है। नौसेना में शामिल की गई पनडुब्बीयों में से पहली पनडुब्बी अप्रैल 1986 में आई0एन0एस सिंधुघोष थी, यह डीजल इलेक्ट्रिक इंजन द्वारा संचालित एक विंटेज शिसुमर श्रेणी की पनडुब्बी थी, जिसमें 45 दिनों की अवधि और 10,000 किमी तक  की परिचालन सीमा थी। 1971 के युद्ध में नौसेना ने न केवल समुद्री सीमाओं को सुरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि दुश्मन को रोकने के लिए समुद्र में अपनी मजबूत उपस्थिति बनाए रखी। तब से लेकर वर्तमान समय तक स्ट्रेटेजिक चुनौतियां कई गुना बढ़ गयी है। चीन का उदय, क्षेत्रीय जल में आर्थिक गतिविधियों का बढ़ता महत्व और नेविगेशन की स्वतंत्रता बनाए रखने की आवश्यकता नौसैनिक रणनीति के सबसे महत्वपूर्ण कारक साबित हुए हैं। जब से अमेरिका ने, एक प्रमुख नीतिगत परिवर्तन के कारण, 2018 से पुनः अपना ध्यान एशिया की ओर किया है तबसे इस हिंद-प्रशांत के क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए हलचल में वृद्धि हुई है। यह मुख्य नायक यानी अमेरिका, चीन और क्वाड सदस्यों द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण में साफ़ झलकता है। भारतीय नौसेना को इस बात का श्रेय जाता है कि वह विकासशील स्थिति के प्रति सजग रही है। नौसेना आवश्यक संसाधनों को जुटाने और भविष्य के लिए अनुमानित करने में सबसे आगे रही है । इसने विध्वंसक जहाजों, विमान वाहक पोतों और पनडुब्बीयों की प्रमुखता से निर्माण के लिए कदम उठाया है। शुरुआत में 80 के दशक में छह पनडुब्बीयों के बेड़े से नौसेना ने आज की तारीख में अपने पनडुब्बी बेड़े को तीन गुना तक बढ़ा लिया है। भारत 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद से यह गंभीरता से महसूस कर रहा था कि परमाणु हथियार से लैस पनडुब्बीयां जवाबी कार्यवाही की विश्वश्नीयता के लिए अतयंत आवश्यक है। अरिहंत श्रेणी की पनडुब्बीयों को शामिल करके संभवत: नौसेना ने इस चुनौती पर भी काबू पा लिया है।

स्ट्रेटेजिक प्रभाव का विस्तार

वर्तमान में भारतीय नौसेना का प्रभाव अरब सागर और पश्चिमी प्रशांत महासागर के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ है। मुख्य रूप से हिंद महासागर में समुद्री रास्तों को सुरक्षित रखना इसकी एक बड़ी जिम्मेदारी है । इसे एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय नौसेना शक्ति और प्रमुख पश्चिमी शक्तियों द्वारा पसंदीदा भागीदार भी माना जाता है। नई चुनौतियों के आगमन और भविष्य की अनुमानित आवश्यकताओं के साथ, भारत को हिंद और प्रशांत महासागर में अपनी शक्ति प्रक्षेपण का उपयोग करने की अत्यंत आवश्यकता है। ये सब भारत की उभरती पनडुब्बी क्षमताओं पर गंभीर रूप से निर्भर है।

एक महत्वपूर्ण घटक जिसकी भारतीय नौसेना को आवश्यकता है, वह न केवल पनडुब्बियों का विस्तार है, बल्कि इसकी सम्पूर्ण पनडुब्बी बल भी शामिल है। करगिल युद्ध के बाद सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने भविष्य की राष्ट्रीय जरूरतों को पूरा करने के लिए अगले 30 साल की अवधि में 24 पनडुब्बीयों के निर्माण को मंजूरी दी थी। भारत के पास शिशुमार श्रेणी, सिंधुघोष श्रेणी की 16 डीजल इलेक्ट्रिक संचालित पारंपरिक पनडुब्बीयां हैं, इसके अलावा कलवरी श्रेणी की नवीनतम और दो परमाणु पनडुब्बीयां है। शिसुमर का निर्माण जर्मनी की सहायता से किया गया था, जबकि सिंधुघोष रूसी किलो क्लास पनडुब्बीयों के समान हैं, जिनका निर्माण 1986 में शुरू हुआ थीं। आई0एन0एस वागीर 23 जनवरी 2023 को नौसेना में शामिल होने वाली कुल छह कलवरी श्रेणी या स्कॉर्पीन श्रेणी की स्टेल्थ पनडुब्बीयों में से पांचवीं पनडुब्बी है। लेकिन एक पनडुब्बी बल की असली ताकत परमाणु संचालित हमलावर पनडुब्बीयां होती हैं। ख़बरों के अनुसार भारत वर्तमान में अपने एडवांस टेक्नोलॉजी वेसल प्रोग्राम के तहत चार स्वदेश निर्मित परमाणु संचालित अरिहंत श्रेणी की पनडुब्बीयों में से शायद आई0एन0एस अरिहंत और आई0एन0एस अरिघाट का निर्माण कर चूका है और अब उन्हें ऑपरेट भी कर रहा है।

नयी क्षमतााएँ

भारत को आधुनिक सोनार और ध्वनिक हाइड्रोफोन के साथ नई पीढ़ी की परमाणु संचालित लंबी क्षमता वाली स्टील्थ पनडुब्बीयों की अधिक आवश्यकता है, जो स्ट्रेटेजिक मिसाइलों से लैस किये जा सके और साथ ही एंटी-एयर, एंटी-सरफेस और एंटी-सब सर्फेस खतरों को प्रभावी ढंग से बचने और निष्पादित करने की क्षमता रखते हों। चालक दल के प्रशिक्षण, रखरखाव सहायता और संकट प्रतिक्रिया क्षमता के माध्यम से पनडुब्बीयों के इन बढ़े हुए बेड़े को बनाए रखने के लिए पर्याप्त समर्थन प्रणाली और मजबूत रसद सहायता प्रबंधन की भी आवश्यकता होगी। नौसेना ने अगस्त 2013 में एक दुर्घटना में आई0एन0एस सिंधुरक्षक के दुखद नुकसान के दौरान संकट प्रबंधन में कई सबक सीखें हैं।

जब आवश्यकताएं वास्तविक हों और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उपलब्धता मौजूद नहीं है, तब इसका एकमात्र उत्तर स्वदेशी क्षमता ही है। परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बीयों के सफल विकास ने भारत को विशिष्ट श्रेणी में शामिल कर दिया है, जिससे भारत इस महत्वपूर्ण क्षमता वाले पांच स्थायी सदस्यों के अलावा पहला देश बन गया है। परमाणु संचालित पनडुब्बीयों का निर्माण न केवल तकनीकी रूप से जटिल है, बल्कि बेहद महंगा निवेश है। एक अनुमान के तौर पर इसकी लागत पारंपरिक पनडुब्बी की तुलना में लगभग आठ गुना अधिक है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम जैसे एम0डी0एल, एच0एस0एल और कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड के साथ-साथ एल0एंड0टी शिपबिल्डिंग और पीपावाव शिपयार्ड जैसी निजी कंपनियों ने घरेलू विध्वंसक, विमान वाहक और पनडुब्बीयों के निर्माण में आशाजनक क्षमताएं दिखाई हैं।  डी0आर0डी0ओ की सहायता से नौसेना डिजाइन निदेशालय के तहत नौसेना के इनहाउस पनडुब्बी डिजाइन समूह  ने स्वदेशी क्षमता को और मजबूत बढ़ावा दिया है।

नौसेना के सामने अब चुनौती पनडुब्बी निर्माण में हासिल की गई गति को बनाए रखने, अपनी मौजूदा परियोजनाओं में तेजी लाने के लिए निजी साझेदारी के अवसरों का पता लगाने के साथ-साथ नई हथियार प्रणालियों के विकास के लिए सहयोग करना है, ताकि इन पनडुब्बीयों को उतने ही प्रभावी हथियार दिए जा सकें। नौसेना को स्ट्रेटेजिक पनडुब्बीयों की जरूरतों को पूरा करने में जिन बातो का समर्थन मिलेगा वह है, तीन दशकों से अधिक का अनुभव, मौजूदा निर्माण क्षमताएं, तीसरे विमान वाहक के बनिस्पत पनडुब्बीयों की प्राथमिकता और लगातार अनुकूल बजटीय आवंटन। हालांकि, नौसेना को देश के सामने आने वाले भू-रणनीतिक वातावरण में किसी भी तरह की लापरवाही और अनअपेक्षित खतरों से निपटने के लिए गंभीरता से सतर्क रहने की जरूरत है। दोनों हालात समयसीमा को पटरी से उतारने और नौसेना की प्राथमिकताों को गंभीर रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखतें है। नौसेना को अपना ध्यान और वांछित उत्साह बनाए रखने में सक्षम बनाने के लिए इसे खुद को यह याद दिलाना होगा कि – ऐतिहासिक तौर पर बहुत कम ही देशों द्वारा एक सफल पनडुब्बी कार्यक्रम विकसित किया जा सका है। भारतीय नौसेना की कड़ी लगन और उत्साह इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में एक नए इतिहास की संरचना कर सकता है!

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